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Monday, December 14, 2015

बचपन की सुनहरी यादें : कितना अजीब है ना....

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तुम हमेशा समय के साथ चलती थीं,,और मैं हमेशा से कुछ पिछड़ा हुआ रहा,,
मुझे अच्छी तरह याद है जब हम साथ दुकान पर जाते थे,,तब एक 'गुगली' नामक टॅाफी चलन में आई थी,,और 'बिग बबल' नामक च्युइंगगम भी,,

गुगली के साथ क्रिकेटर कार्ड मिलते थे और बिग बबल के साथ पानी लगाकर चिपकाने वाले टैटू,,तुम दोनों चीजें खरीद कर इतरा के दिखाती थी,,जबकि,,

"मैं दो ही रुपए में सोलह "संतरे वाले कंपट" खरीद लाता,,मुझे उनका स्वाद ज्यादा पसंद था,,और लौंडों से व्योहार बनाने में भी बहुत काम आते थे वो कंपट,,

टैटू माँ ने मना किए थे,,कहा था इस से त्वचा खराब होती है,,
"तुम टीवी को मानती थीं,मैं माँ को मानता था"

अक्सर तुम उन बच्चों के साथ खेलती थी जिनके पास कैरमबोर्ड था,,
"मैं मलंग,माचिस के ताश और कंचे खेलकर खुश हो लेता था"

यही फर्क हमारी पढ़ाई के दिनों मे भी रहा,,,तुम हमेशा मुझसे एक कदम आगे रहती,,पढ़ने में नहीं,,फैशन में,,
"तुम 'रंगीला' के स्केच पेन्स लाई थीं जबकि लौंडे की कहानी,,तीन रुपए वाले 'वैक्स कलर्स' से बस एक कदम आगे बढ़कर 'कष्टक' वाले 'वैक्स कलर्स' तक ही पहुंच पाई,,

"लेकिन ड्राइंग आज भी तुमसे अच्छी है"
फिर यही मतभेद पेन और रबड़ के बीच भी चला,,
तुमने 'नया सेलो ग्रिपर' खरीदा और 'खुशबू वाली रबड़' भी,,

"मैं रेनॅाल्ड्स ०४५ 'नीले कैप वाला' से खुश था ,,,और नटराज की रबड़ से भी"
हाँ पेन्सिल दोनो की नटराज की ही रहती थीं,,तुमने एक बार फूलों वाली भी पेन्सिल ली थी,लेकिन वो कच्ची निकल गई थी

"राइटिंग भी तुमसे अच्छी ही है आजतक"
बस तुम ही एक ऐसी थीं जो मेरी सादगी को मेरा 'पिछड़ापन' समझती थी,,और मैं,,,
"मैं जानता था कि इस होड़ में तुम बहुत कुछ खो बैठोगी,,लेकिन कहा नहीं,,सोचा कहीं तुम्हें खो ना दूँ"
हाँ हाँ,,

मैंने तुम्हें नहीं खोया,,तुमने मुझे खोया है,,मेरा डर सही निकला,,तुम आज भी मुझमें कहीं जिन्दा हो,,
लेकिन मैं ??
क्या तुम मुझे याद तक करती हो ?? शायद नही,,क्योंकि तुम अभी भी शायद उसी घुड़दौड़ में होगी,,
मैं आज भी शान्त और शालीन हूँ,,अक्सर तुम्हें याद करने का समय निकाल लेता हूँ,,दुआ कर लेता हूँ कि तुम जहाँ भी होगी,,अच्छी होगी ।

इतना सबकुछ हो गया,,बहुत समय बीत गया लेकिन,,
"नीले ढक्कन वाला वो रेनॅाल्ड्स आजतक मेरा प्रिय पेन है"

खुशबू वाली रबड़ आज भी जब कहीं मिल जाती है तो खरीद लाता हूँ,,
"तलाशता हूँ उसकी खुशबू के साथ,,तुम्हारी वो हंसी,,और तुम्हारे साथ,,बचपन वाली वो खुशबू"

लेखक : वरुनेंद्र त्रिवेदी

Saturday, October 31, 2015

बचपन की सुनहरी यादें : वो दिन जो बीत गये

    बचपन की सुनहरी यादें : वो दिन जो बीत गये 

indian childhood memories in hindi
Source- thewackyduo

अभी ज्यादा उम्रदराज नहीं हूं लेकिन उस समय का पक्षधर रहा हूँ, यही कोई 15 साल पहले जब शाम चरम पर होती थी तब हमारे गांव में लगभग सभी बुजुर्ग घर के बाहर कच्चे चबूतरे अपनी अपनी खाट निकालकर बैठ जाते थे ।अगल बगल गोबर भी पड़ा होता था। 

हम शाम को दोस्तों संग खेलते कुदते अधिकांश दिन धूल से सने घर को लौटते थे आंखो को सुकुन देने वाला रमणीय नजारा होता था अभी भी खेतों में चरती कुछ भैंस और बकरिया और घंटे दो घंटे में साईकिलों के बीच से कभी पड़पड़ाती स्कूटर भी निकल जाती थी, आखिरकार हम रास्ते में बंधी भैंसो की पुंछ को बचाते हुए हम गांव में प्रवेश कर ही जाते थे ।


Source- indiatvnews

उन बुजुर्गों की खाट पर बड़े सादर भाव से हम भी बैठ जाते थे । बुजुर्ग द्वारा अपने मितान से बात करते वक्त हम उन लोगों की बातें बड़े ध्यान से सुनते थे फिर शुरू होता था हिदायतों का वक्त, यही की संभाल के खेला करो , मन से पढ़ो लिखो । हां मुझे पता उन बुजुर्गों के मन थोड़ी भी ईर्ष्या की भावना न थी । 

उनके द्वारा बच्चों को प्यार से पुचकारना । उनका तो बच्चों को पुकारने का अंदाज भी अलग था, हम लोगों को पापा के नाम से पुकारा जाता था जैसे "हे कैलास वाला "।अब हम मदमस्त अंदाज में घर को चल दिया करते थे अब नंबर होता था अपने दादा के पास जाने का । थोड़ा भी अंधेरा हो गया हो तो हल्की फुल्की डांट भी सुननी पढ़ती थी ।
---


समय बदल गया है --


चबूतरे पक्के हो गये हैं, आसपास ना भैंस हैं ना गोबर, साफ सफाई भी खुब रहती है लेकिन अब शाम को उन सभी घरों के दरवाजे बंद रहते हैं जहां कभी महफिल जमा हुआ करती थी, जहां कभी बुजुर्गों में तर्क वितर्क चला करता था और बच्चे भी जैसे कोचिंग क्लास में बैठे उनकी बाते सुना करते थे । 

आज वही चबूतरे पर कुछेक बुढ़े या नई युवा पीढ़ी बैठी मिल जाती है लेकिन फर्क इतना होता है कि ये ईर्ष्या से परिपूर्ण और किसी से कोई मतलब नहीं ।पहले चबूतरे गंदे थे लेकिन दिल साफ था आज चबूतरे साफ हैं पर दिल गन्दा ।


आज हम रात 8 बजे तक घर पहुंचते हैं लेकिन " अब तक कहा थे ? कोई पूछने वाला नहीं है -----।।
हां __ कुछ तो छीना इस नारंगी ज़माने ने ।



Story Writing and post editing by- पंकज विश्वजीत And Ignored Post Team..


ये पोस्ट नही पढ़ा तो कुछ नही पढ़ा =>> 90's kids... (1990 के दशक के बच्चे)- कुछ सुनहरी यादें

Monday, October 26, 2015

Sehwag के Fans के लिए Special Post: वीरू को मुल्तान का सुल्तान यूँ ही नही कहते थे

अगर आप सहवाग के फेन है तो आप निश्चित तौर पे दुखी होंगे क्युकी जिस खिलाडी ने हमें क्रिकेट में इतने अच्छे पल दिए उस खिलाडी को ढंग से सन्यास भी नही दे पाए ! पढ़िए cricketing Golden memories को समेटे इस पोस्ट को :
courtesy- battingwithbimal

छियानवे वला वर्ल्ड कप देखे थे.? साला जयसूर्या मारा सीरीनाथ आ प्रभाकरवा को था मगर लग हमको रहा था, सीधा करेजा पर.
जब अफरीदिया 17 गेंद में पचास ठोका था, श्रीलंका के साथे, तब दिल बहुत रोया था हमारा.
फिर साला जब गिलक्रिस्टवा हुमच हुमच के मारता था न्यूजीलैंड वला सब को, त करेजा हमरा फट जाता था.
ऊ टाइम कभी सदगोपन रमेश तो कभी नयन मोंगिया तो कभी जडेजा हमारे लिए ओपनिंग करते थे. दस ओवर मे चालीस रन बन जाता था तो शानदार शुरुआत हो जाता था. सिद्धू पाजी जा चुके थे आ सचिन अकेले जूझता रहता था. (माने वो तो अकेले साढे तीन सौ के बराबर हैं, पर दूसरका एंड पे न न कोई रहता था तो वो भी गड़बडा जाते थे कहियो कहियो.)पिंच हिटर बना के सीरीनाथ और रोबिनवा को भेजा जाता था कि रन रेट बढे़. हर मैच मे यही सोंचते रहते थे कि इ साला हमरा ओपनर सब अफरीदीया जइसा बल्ला काहे नहीं चलाता है.. जयसूर्या जइसा कवर और प्वाइंट के ऊप्पर से मारने वाला कोई हमरे टीम मेें क्यों नहीं हैं.. पंद्रह ओवर के घेरा का फइदा हमारा बैट्समैन सब कहिया बूझेगा ?

sanath jaysurya innings
courtesy- espncricinfo

फिर 2000-01 मे आस्ट्रेलिया आया इंडिया. बैंगलोर वन डे मैच मे अपना एगो खिलाडी़ पचास रन मारा, स्टीव वॉ को आउट किया, मैन ऑफ द मैच बना मगर चोट लगा के पूरा सीरिज से बाहर. लेकिन मरदे ऊ जो फेर आया न्यूजीलैंड वला वनडे में तो ओपनिंग किया, टीम को फाइनल में पहुंचने वाले रन रेट का सारा हिसाब किताब बराबर किया और तब हमको लगा कि अब बेटा जलने,मरने आ फटने का बारी विरोधी सब का है. आफरीदी, जयसूर्या, गिलक्रिस्ट और तमाम बिग हिटर, जिनके बैटिंग से बॉलर से ज्यादा हम डरते थे उनके बड़े पपा 69 गेंद में सेंचुरी बना के पैदा हो चुके थे.

2001 में जब अपना टीम अफ्रीका गया तो पहिला टेस्ट में पांच बैट्समैन टीम को 'भगवान' भरोसे छोड़ चुके थे. तब भगवान का साथ देने हनुमान जी खुदे आ गये. फिर स्लिप के ऊपर से कट, कवर मेें बैकफुट से किया गया पंच और हवा मेें उछलकर बैकफुट से किये फ्लिक का जो दौर शुरू हुआ वो थमा ही नहीं. पहले टेस्ट में सेंचुरी लगा के दुनिया को बताया गया कि अब सिर्फ भगवान ही नहीं उनका क्लोन भी टेस्ट मैच इंडिये के तरफ से खेलेगा.
when sehwag hit four on shoib akhtar's bowl
courtesy- wsj.net

टेस्ट मैच के पहिला दिन पहिले ओवर से थर्ड मैन आ डीप प्वाइंट लगने लगा..स्पिनर विकेट लेना छोड़कर रन बचाने में लग गये.. टेस्ट मैच हाऊस फुल जाने लगा.. एक दिन में तीन साढे तीन सौ रन बनने लगा.. स्लिप के ऊपर से छक्का जाने लगा.. लंच तक पचास, चाय तक सेंचुरी और स्टंप्स तक दू सौ.. साला दिल्ली के रिक्शा मीटर से तेज रन टेस्ट में बनने लगा. बॉलर जेतना घूरता और गरियाता था ओतना और कुटाता था.. साले उ डेढ़ सौ के स्पीड से फेंकता था तो कवर और प्वाइंट के बीच से दू सौ के स्पीड से बाउंड्री जाता था. ऑफिस, स्कूल, कॉलेज में लोग 'सेहवाग का बैटिंग देख के' जाने लगे. फुटवर्क हो तो साढ़े पांच फुट का आदमी क्या कर सकता है ये सचिन बता चुके थे लेकिन बिना फुटवर्क के साढ़े पांच फिट का आदमी क्या क्या कर सकता है, ये अब पता चल रहा था.
sehwag hit century
courtesy- livemint.com

वन डे, टी ट्वेंटी ठीक है पर असली क्रिकेट और असस्ल क्रिकेटर क्या है ये किसी टेस्ट क्रिकेट के प्रेमी से पूछिये. अपना बेखौफ और लापरवाह बैटिंग से टेस्ट क्रिकेट में पब्लिक को वापस खींच के ले आए. ब्लोफेंमटन से शुरू हुआ मार कुटाई एडिलेड से होते हुए जब मुल्तान आया तो आतंक मे बदल चुका था. लगातार ग्यारह अइसन सेंचुरी जो डेढ़ सौ के ऊपर हो, ऊ ब्रैडमैन साहेब ही बनाए थे इनसे पहले. फास्टेस्ट दस डबल सेंचुरी में पांच बार इसका ही नाम है, बताइए .अगर किसी टेस्ट में किसी बैट्समैन ने दुन्नो पारी में सेंचुरी बनाया हो, उसी मैच में क्रिकेट के महानतम खिलाडी़ ने नाबाद सेंचुरी बनाई और जीत तक ले गए लेकिन मैन ऑफ द मैच इनको मिले जिसने 68 गेंदो मे 83 रन बनाए हो तो खेलपर बंदे का क्या छाप होगा समझा जा सकता है . बांकी रिकार्ड ऊकार्ड बनता रहेगा, टूटता रहेगा पर जो कनेक्शन इनका हमलोगों और टेस्ट क्रिकेट के चाहनेवालों से जुडा़ है ऊ फेर किसी से जुड़ना बहुत मुश्किल हैं. आखिरकार दुनिया को इहे बताए न कि जब बॉल मारने लायक हो तो मारना चाहिए और जब बॉल मारने लायक ना हो तब भी मारना चाहिए.

Story Writing and post editing by- Amit Thakur And Ignored Post Team... 

Friday, July 17, 2015

90's kids... (1990 के दशक के बच्चे)- कुछ सुनहरी यादें

bachapan ki sunhari yaadein
Image Courtesy- Google Image
जी हाँ! नब्बे के दशक की पीढ़ी! यह वो पीढ़ी थी जिसने ना सिर्फ सदी का बदलना ही देखा, बल्कि वक्त को भी बहुत तेजी से बदलते देखा। यह वो पीढ़ी थी जो बदलते वक्त के प्रभाव से देश-काल की संस्कृति और संस्कार में हो रहे आमूलचूल बदलावों की साक्षी रही थी। ये ऐसे समय पर आये जब इन्होंने एक दौर को पीछे छूटते और नए दौर को आते हुए देखा… वो भी अपनी बचपन की छोटी निगाहों पर विस्तृत मस्तिष्क से। और कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि यही पीढ़ी… हमारी 90s की पीढ़ी ही वो पीढ़ी थी जिसने व्यापक पैमाने पर हो रहे इन बदलावों को खुले दिल से अपनाया भी साथ ही इन बदलावों को आगे की ओर बढाने में भी मददगार रहे।

नब्बे का दशक वो दशक था जब प्रकृति आज के मुकाबले ज्यादा रंगीन थी पर जमाना काफी ब्लैक एन्ड व्हाइट हुआ करता था… हालांकि आज इसके ठीक उलट ज़माना तो रंगीन होता जा रहा है, पर प्रकृति की रंगीनी खोती जा रही है। हमारी पीढ़ी ने घरों से लेकर कपड़े, जूते, चप्पल, टीवी सब कुछ रंगीन फिर और भी ज्यादा रंगीन होते हुए देखा। उस टाईम बच्चों के पास इनडोर गेम्स के नाम पर सिर्फ राजा-मंत्री-चोर-सिपाही, लूडो या कैरम बोर्ड हुआ करते थे। हाँ, कुछ डेढ़-श्याणे व्यपारी भी खेला करते थे। छोटे बच्चों के लिए आईसपाईस, बरफ-पानी, विष-अमृत, ऊँच नीच का पापड़ा और थोड़े बड़े लड़को के लिए गुल्ली डंडा, पिट्टो, पतंग, कंचे, लट्टू ­ आदि हुआ करता था। लड़कियाँ कड़क्को और कितकित खेला करती थीं।

इंडिया में मोगली, दानु जैसे देसी कार्टून्स हमारे ही समय शुरू हुए जिन्हें शटर वाली ब्लैक एन्ड व्हाइट टीवी में देखा जाता था। उस पर भी यह टीवी पूरे मोहल्ले में एक-दो घरों में ही पाए जाते। चैनल के नाम पर डी.डी. 1 और जो थोड़े हाई फाई हुए उनके यहाँ डी.डी. 2 भी. हमारी पीढ़ी साक्षी रही है चंद्रकांता संतति, जय श्री कृष्णा और रामायण जैसे कालजयी धारावाहिकों की, जिनके मुकाबले आज के दौर के कपिल शर्मा की टीआरपी भी शर्मा जाए! फिर हमारे ही दौर में आया भारत का सबसे पहला सुपरहीरो भी, यानी "शक्तिमान"। जिस पर आज 90 के दशक का हर लौंडा गर्व करता है। और सिर्फ 90s के ही क्यों, आज भी किसी डाउनलोड वाले के पास जाकर पूछें तो पता चले की शक्तिमान को हमारी पीढ़ी के लोग दोबारा से अपने मोबाइल में लेकर देखते तो हैं ही, साथ ही आज-कल के बच्चों में भी इसका उतना ही क्रेज बरकरार है। हालांकि फिर कर्मा, जूनियर जी और शाकालाका बूमबूम जैसे भी शोज आये।
फिर हम जैसे ही कुछ बड़े हुए तो हमने पाया कि कमोबेश हर घर में अब कम-से-कम ब्लैक एंड व्हाईट टीवी तो है पर साथ ही हमारी पीढ़ी ने टीवी के एंटीना को डिश टीवी के केबलों में बदलते देखा। अब हमने हमारे समाज को डिश टीवी वालों और नॉन डिश टीवी वालों में विभक्त पाया। हमारी पीढ़ी ही जानती है कि ऐसे केबल टीवी वाले परिवार के लोग और खासकर उनके बच्चे हमारे सामने किस प्रकार भौकाली बने फिरते थे। इन परिवारों की महिलाओं की लेडिज-मंडली में कितना ऊंचा स्थान होता था यह कोई और समझ ही नहीं सकता। हमारे ही समय में सबसे पहले पोपाये, पॉवर पफ गर्ल्स, स्कूबी डू, टॉम एन्ड जेरी जैसे कार्टून्स इंडिया में आये। सास बहु के सीरियल्स, समाचार और खबरें से लेकर ब्रेकिंग न्यूज़, शशश... कोई है, आहट जैसे कालजई हॉरर सीरियल्स हमारे सामने आये। और जब बात 90s के दशक की हो तो कैसे भूल सकते हैं हम कुमार शानू और अलका याज्ञनिक के गाये उन प्रेमगीतों और विरह के गीतों को जिन्हें एक दूसरे को सुनाने के बाद बड़े लड़के छोरियां पटा डालते थे। आज के कई बच्चों के माता-पिता इन्हीं 90s के गीतों की देन हैं। और तो और आज के प्रेमियों और मजनुओं के लिए भी हमारी पीढी के ये गीत एकमात्र आधार बने हुए हैं।

100 रूपये के डब्बे वाले वीडियो गेम्स से शुरू होकर एंड्राइड गेम्स तक का सफ़र भी हम नब्बे के दशक वालों ने देखा। कैसेट्स वाले म्यूजिक सिस्टम्स, वी.सी.आर., वॉकमेन, फ्लॉपी, सिंगल स्क्रीन सिनेमा से लेकर सी.डी., डी.वी.डी. से लेकर पेन ड्राइव्स, मेमोरी कार्ड, नोकिया 1110 से लेकर स्मार्टफोन्स तक का सफ़र हमने देखा। क्रीज वाली पैंट्स, अमिताभ स्टाइल वाले बेलबॉटम से मंकी वॉश, 36 झालर वाली कार्गो, चिपकौवा जीन्स से लेकर नरो जीन्स, झोला बाबा वाली शर्ट्स से लेकर डिजाइनर टी-शर्ट्स शर्ट्स का दौर हमने देखा। हमने वह समय देखा जब लोग कलाई घडी की तारीख बदल लेने पर खुद को भौकाली साबित कर देते थे… हमने वह समय देखा जब लोग (मैं भी) टीवी और वीसीआर के रिमोट के बटनों के फंक्शन जानने भर में खुद को भौकाली मान बैठते थे… हमने वह समय देखा जब लोग टीवी के एंटीना हिला कर और चोंगे वाले टेलीफोन के कोड को खोलकर दोबारा लगाकर टीवी और टेलीफोन ठीक कर दिया करते और भौकाली बने फिरते। हमने आज के कम्प्यूटरों के संदूकनुमा पूर्वजों को देखा है, जो यकीनन डायनासौर युग के ना भी हुए हों तो भी कुतुबुद्दीन ऐबक के समकालीन जरूर रहे होंगे BC. आज के बच्चे भले बाप के पैसे उड़ाकर पल्सर 220 खरीद लेते हों और अपनी गर्लफ्रेंड्स को बिठाकर भौकाली बनने की कोशिश करते हों, पर हमने वो ज़माना देखा है जब बड़े भाई लोग अपने बाप की दहेज़ वाली बजाज की स्कूटर चुपके से ले जाते और अपनी प्रियतमा के पीछे-पीछे उसके कोचिंग से घर तक चले जाते। जो लड़की के बाप ने देखा तो धूने जाते और जो खुद के बाप ने देख लिया तो कूटे जाते। यामाहा RX100 कब बुलेट फिर राजदूत फिर स्प्लेंडर, पैशन, पल्सर और फ़ेजर में बदल गए ये हमारी पीढ़ी ही बता सकती है। विदेशी हॉलीवुड फिल्में तो अब चलन में आई हैं। सिनेमा हॉल के प्रागैतिहासिक काल के साक्षी तो हम 90s वाले रहे हैं। 10₹ के टिकट पहली बार लेने गए थे और चाचाजी द्वारा पकड़ लिए जाने के बाद जो कुटाई हुई थी उसका दर्द आज कल इन्टरनेट से सीधे अपने मोबाइल में उतार लेने वाली पीढ़ी क्या समझेगी भला!
bachpan ki sunhari yaadein
photo courtesy- 90'skids.com

अंत में यही कहूँगा कि हमने एक समय को पीछे छूटते देखा और एक समय को आते हुए देखा। कभी-कभी लगता है जरुरत की सभी चीजें हमारी उम्र के हिसाब से शुरू होती चली गईं। अफसोस है उन पीढ़ियों के लिए जो कभी नहीं महसूस कर पाएंगी कि एक दौर वैसा भी होता था, जिसे सिर्फ और सिर्फ हमने जीया। मैं गर्व से आज यह कह सकता हूँ कि हमने वक्त बदलते हुए देखा… वक्त को बढ़ते देखा… क्रमशः जवान होते देखा। और जब यह वक्त बूढ़ा हो जाएगा, अपनी आखिरी साँसें ले रहा होगा तब हमारी आँखों के चित्रपट पर इन्हीं यादों के चलचित्र चल रहे होंगे और यकीनन तब भी हम जी रहे होंगे अपना ही वो बचपन… वो नाइंटीज का अकल्पनीय दशक!

दोस्तों यह post आपको  कैसा लगा मुझे उम्मीद है आपकी भी बचपन की सुनहरी यादें ताज़ा हो गई होगी  अगर आपकी भी कोई ऐसे पुरानी यादें है जो हमारे साथ share करना चाहते हो तो कृपया कमेंट बॉक्स में जरूर लिखे  .और इसे अपने friends  के साथ भी ज़रूर share करें . धन्यवाद !!

-चाइल्डहूड स्पेशलिष्ट ‪सुमित सुमन‬ की सहायता से कर्ण साहू की पोस्ट से साभार

Childhood Memories: जिंदगी तब ही अच्छी थी जब....

जिन्दगी तब ही अच्छी थी,
जब सबसे बड़ा डर होता कि साढ़े नौ की पिक्चर के बीच में लाईट न चली जाए,
कपाला शक्तिमान को हरा ना दे,

टैंक वाले वीडियो गेम का सेल जल्दी ख़त्म न हो जाए,
जिन्दगी तब ही अच्छी थी जब खुशियाँ आमचूर के पैकेट और दो कंचों में सिमट जाती थी।
डर लगता कि कल भूगोल के पीरियड के पहले बारहवाँ अध्याय पूरा न हो पाया तो,
Photo Courtesy- Google Image
डर लगता कि सचिन आज फिर 99 पर आउट हो गया तो,
डर लगता कि वो सारी कॉपियाँ जिनमें नही मिले हैं ढ़ंग के नम्बर
उनमें दस्तखत कराते वक़्त बिफर पड़े पापा तो?

अब लगता है कि पिक्चर न देख पाए तो क्या,
चिमनी से बनी परछाई में जोड़कर अंगूठे से ऊँगली,
हिरण की आँख बनाना उससे कहीं बेहतर था,

बेहतर था बड़ा न सही आमचूर के पैकेट से छोटा ईनाम निकलना।
डेड लाइन्स के बीच घिसटती जिन्दगी में खाने की छु
ट्टी में भूगोल की कॉपी पूरा करना कितना आसान लगता है।

जिन्दगी तब ही अच्छी थी,जब जिन्दगी से मतलब न था।

आपको ये पोस्ट कैसी लगी आप कमेंट कर सकते है धन्यवाद :-)
Post By- Ashish Mishra