जिन्दगी तब ही अच्छी थी,
जब सबसे बड़ा डर होता कि साढ़े नौ की पिक्चर के बीच में लाईट न चली जाए,
कपाला शक्तिमान को हरा ना दे,
टैंक वाले वीडियो गेम का सेल जल्दी ख़त्म न हो जाए,
जिन्दगी तब ही अच्छी थी जब खुशियाँ आमचूर के पैकेट और दो कंचों में सिमट जाती थी।
डर लगता कि कल भूगोल के पीरियड के पहले बारहवाँ अध्याय पूरा न हो पाया तो,
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डर लगता कि सचिन आज फिर 99 पर आउट हो गया तो,
डर लगता कि वो सारी कॉपियाँ जिनमें नही मिले हैं ढ़ंग के नम्बर
उनमें दस्तखत कराते वक़्त बिफर पड़े पापा तो?
अब लगता है कि पिक्चर न देख पाए तो क्या,
चिमनी से बनी परछाई में जोड़कर अंगूठे से ऊँगली,
हिरण की आँख बनाना उससे कहीं बेहतर था,
बेहतर था बड़ा न सही आमचूर के पैकेट से छोटा ईनाम निकलना।
डेड लाइन्स के बीच घिसटती जिन्दगी में खाने की छु
ट्टी में भूगोल की कॉपी पूरा करना कितना आसान लगता है।
जिन्दगी तब ही अच्छी थी,जब जिन्दगी से मतलब न था।
आपको ये पोस्ट कैसी लगी आप कमेंट कर सकते है धन्यवाद :-)
Post By- Ashish Mishra
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