Thursday, July 23, 2015

Hindi Story - दिल को छूने वाली कहानी: बस कंडक्टर

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मोहम्मद स्माइल खान की लिखी ये स्टोरी कहानी की दुनिया की सबसे पसंद की जाने वाली कहानीयो में से एक है इसलिए आपके साथ में ये स्टोरी शेयर कर रहा हूँ उम्मीद करता हूँ आपको पसंद आये !

Best Hindi Story "Bus Conductor" 


उस साल बहुत ज्यादा बारिश थी। टी.व्ही., रेडियो और अखबारों में बारिश, बाढ़ और बारिश से होने वाले हादसों के ही जिक्र थे। लोग बहुत जरूरी होने पर ही सफर पर बाहर निकलते थे।
उस रोज तो बहुत ज्यादा ही बारिश थी। सारा, शहर, कर्फ्यु जैसा हो गया था। मैं भी आज ऑफिस नही गया था और घर में ही था। टेलीफोन की घन्टी बजी। चूंकि टेलीफोन रात से ही सुस्त पड़ा था, मानो वह भी बारिश में ठिठुर कर दुबक गया हो। जब उसने शोर मचाया तो, मैंने सोचा कौन होगा! टेलीफोन पर लम्बी बेल थी, तो जरूर बाहर से होगा। मैंने रिसीवर उठाया। टेलीफोन दूर मेरे गाँव से था, छोटे भाई की तबियत ज्यादा खराब थी इसलिये माँ ने मुझे तुरन्त बुलाया था।
दिन का तीसरा पहर था, जाने का इरादा किया और एक छोटी अटैची लेकर बस स्टेण्ड की ओर चल दिया। बारिश बहुत तेज थी, मैं देर रात तक इन्दौर पहुंचा। आगे बस की कोई व्यवस्था न थी। बारिश की वजह से कई बसें नही चल रही थी। इसलिये मैं इन्दौर में ही रूक गया।

इन्दौर का सर्वटे बस स्टेण्ड बारिश की सीलन और मक्खियों से भरा हुआ था। फर्श लोगों के गीले पैरों की आवाजाही की वजह से गन्दा था। लकड़ी की गोल बेंचों पर जो सीमेन्ट पोल के चारों तरफ लगी थी, उन पर कुछ लोग बेतरतीब बैठे थे। कुछ ने पैर भी ऊपर रख लिये थे कुछ ने अपना सामान। कोई बैठने को कोई जगह नही थी। मक्खियाँ भिनभिना रही थी और परेशान भी कर रही थी। तभी बस स्टैण्ड पर एक सरसाहट और छोटी सी अफरा तफरी सी मची। कोई कह रहा था, वो बस जायेगी। लोग खिड़कियों में से ही अपना सामान अन्दर डालने लगे, कि उन्हें बैठने की जगह मिल जाये। थोड़ी ही देर में बस पूरी भर गई। लोग अपना सामान सीटों के पास और कॉरीडार में इधर उधर रखने लगे। मैं बस के बाहर ही खड़ा ये पेसेन्जरों की धींगामस्ती देखता रहा।

वैसे मैं भी इसी बस में सफर करने का इरादा रखता था, पर पता नही क्यों मैंने उन पेसेन्जरों की तरह जल्दी नही मचाई। थोड़ी ही देर में एक ठेठ किस्म का कन्डक्टर बस के करीब आया। उसने अपने रबर के जूतों पर पतलून ऊपर टखनों तक मोड़ रखी थी। खाकी रंग की पतलून पर खाकी रंग की ही चार जेबों वाला कन्डक्टर यूनिफार्म का शर्ट जो मैला और बदबूदार था, पहन रखा था। मुँह में पान, कान के ऊपर पेन, बगल में मुड़ी हुई कागज की पेसेन्जर शीट और टिकिट बुक थी। एक सफेद रंग का मैला रूमाल जो उसने अपने शर्ट की कॉलर के पीछे घड़ी करके जमा लिया था, उसके कन्डक्टर रूप को पूरा कर रहा था। वो पास खड़े एक आदमी से जो शायद एजेन्ट के कन्धे पर हाथ मारता, फिर पान से सने दाँत निकाल कर हँसता।

मैंने उस कन्डक्टर के पास जा कर पूछा - ये बस खरगोन जायेगी। वह बोला - बाबू जी चलेगी अभी थोड़ी देर में, पर कहाँ जायेगी मुझे ही नही मालूम। रास्ते तो सारे बन्द हैं। बैठो बैठो, सब चढ़ गये तो तुम भी चढ़ो, जहाँ तक जायेगी अपन साथ-साथ चलेंगें। मैंने कहा - ऐसा क्यों कहते हो भाई। क्या कहें बाबू जी आगे मानपुर घाट मे जाम लगा हैं। बारिश की वजह से जगह जगह ट्रक फँसे हैं। सड़क का ठिकाना नही बड़े बड़े ट्राले फँसा देते हैं। एक भद्दी सी गाली देकर उसने कहा।

इतने में ड्रायवर अपनी सीट पर बैठ चुका था और उसने बस स्टार्ट कर दी थी। बाहर खड़े लोग बस की ओर लपके और बस में चढ़ गये। मैं भी चढ़ गया। पीछे से कन्डक्टर, ऊपर चढ़ो, पीछे निकलो करता हुआ बस में अन्दर जाने का निर्देश देता हुआ बस के दरवाजे पर लटक गया, और जोर की सीटी बजाई। बस अपनी जगह से सरक कर रेंगने लगी।
पूरी बस का अन्दर भी वैसा ही हाल था, जैसा बारिश में होता है। नीचे बस का पूरा फर्श कीचड़ और गन्दे पानी से सना था। बस में एक अजीब गन्ध बारिश की फैली हुई थी। 

मक्खियाँ बस में भी मौजूद थी। बस की छत जगह से चू रही थी। कुछ खिड़कियों के शीशे नहीं थे, वहां से लोग रिमझिम पानी रोकने की कोशिश कर रहे थे। सर्वटे बस स्टैण्ड से बाहर निकलते-निकलते, बस दो चार बार रूकीं कभी कोई दूसरी बस सामने आ गई, तो कभी ड्रायवर साहब खिड़की से बाहर गर्दन निकाल कर किसी से बातें करने लगे।
उस गिचपिच बारिश के माहौल में, बस में बैठे लोगों की गंध के साथ, गाड़ी के डीजल की गंध मिलकर अजीब ऊबाऊ माहोल बना रही थी।

एक घन्टा चलने के बाद बस इन्दौर शहर से बाहर आ पाई। कभी ट्रैफिक लाईट, तो कभी ट्रैफिक जाम तो कभी सवारियों का चढ़ना। बस जब हिलती डुलती बीस-पच्चीस किलोमीटर चली होगी कि मानपुर घाट के पहले ट्रकों, बसों, ट्रेलरों कारों के पास जाकर बस रूक गई। कन्डक्टर ने कहा ट्राफिक जाम, मरो अब यहीं पर, इसकी तो......................।

लोग कोतुहल से इधर उधर बाहर देखने लगे। शाम घिर आई थी, और बारिश बन्द होने का नाम नहीं ले रही थी। कन्डक्टर जो कि खड़े-खड़े अब तक आ रहा था, और झुंझला कर कुछ बुदबुदाने लगा। उसकी सीट पर एक गाँव की देहाती बूढ़ी औरत और उसके पास एक जवान औरत थोड़ा घूँघट किये बैठी थी। उसकी गोद में एक बच्चा था, जो बहुत रो रहा था। बस चलने की आवाज और लोगों के बातचीत के कोलाहल में उस बच्चे के रोने की आवाज कम हो रही थी लेकिन जब ड्रायवर ने बस का इंजन बंद कर दिया, और लोगों की आवाज कुछ कम हुई तो बच्चे के रोने की आवाज उभर कर कुछ ज्यादा ही शोर करने लगी।

कन्डक्टर जो उस बच्चे के पास ही खड़ा था, ललकार कर उस औरत से बोला - ए बाई बच्चे को चुप करा।
वो औरत बच्चे को कन्धे से लगा चुप कराने की कोशिश करने लगी। पर बच्चे का रोना थमता न था।

उसके पास बैठी बूढ़ी औरत ने कहा - या तो रड़ि रड़ि न मरि जायगों, उको ऊ खोदरा को पाणी पिवाड़ दें। मोटर अभी नई चाले, डर मति (ये तो रो रो कर मर जायेगा, उसको वो गड्डे का पानी पिला दे। मोटर अभी नहीं चलेगी, तू डर मत)। ओर उसने सड़क किनारे गड्डे में भरे पानी की ओर इशारा किया।
बच्चे वाली औरत धीरे से उठने की कोशिश कर ही रही थी, कि पास खड़े कन्डक्टर ने जो इनकी बातें सुन रहा था, थोड़ा डाँट भरी आवाज में बोला-ऐ बाई बच्चे को गंदा पानी पिलाकर मारेगी क्या?

वो औरत वहीं सकुचाकर सिमटकर बैठ गई। कन्डक्टर ने पेसेन्जरों की तरफ देखकर कहा - ए भाई जरा पानी हो किसी के पास तो दो यार बच्चा रो रो कर परेशान है, इसका रोना सुनाता नहीं क्या? है किसी के पास पानी!

बस में से कहीं से आवाज आई - पानी नहीं है किसी के पास! इसकी साली ऐसी की तैसी ...............कह कर सर झटकता हुआ, बस से नीचे उतर गया। गर्दन ऊँची कर बस के आगे लगी लम्बी गाड़ियों की कतार को देखने लगा। खुद ही बुदबुदाया कितनी लम्बी है ....................और आगे चलने लगा। मैं भी कन्डक्टर के पीछे बस से नीचे उतर आया था। बस में एक ही जगह, ऊपर हेन्डिल पकड़कर खड़े-खड़े उकता गया था, चहल कदमी के बहाने कन्डक्टर के पीछे चलने लगा।
गाड़ियाँ एक के पीछे एक लगी थीं एक ट्रक के पास जाकर उसने ट्रक में बैठे ड्रायवर से पूछा सरदार जी पीने का पानी है?
नहीं है पा जी - ड्रायवर ने कहा।

फिर उसने जाम में कतार में खड़ी कई कार वालों ट्रक वालों जीप वालों मिनी बस वालों से पूछा भई गाड़ी में किसी के पास थोड़ा पानी है, मेरी बस मे ंएक छोटा बच्चा प्यासा है यार, रो रहा है।
ऐसा पूछता पूछता वह अपनी बस से काफी आगे निकल आया। पर संयोग से पानी कहीं नहीं मिला। किसी की आवाज आई-जाम खुल गया, चलो-चलो। गाड़ियां धीरे-धीरे रेंगने लगी। हम लोग दौड़ कर अपनी बस में चढ़ गये। बस में बच्चा वैसे ही रो रहा था। ट्रक, बसें, कारें सब एक के पीछे एक रेंगने लगी। हमारी बस भी उनमें शामिल थी। घाट उतर कर बस की रफ्तार कुछ तेज हुई, हालाँकि आगे पीछे गाड़ियों की कतार थी, लेकिन उनके बीच अब फासले बन गये थे। ड्रायवर गाड़ी चलाने में कुछ राहत महसूस कर ही रहा था कि कन्डक्टर ने जोर की सीटी बजायी। जो बस रोकने का आदेश थी। ड्रायवर ने झुंझलाकर पीछे देखा और कहा - क्या करते हो यार, बड़ी मुश्किल से तो चले हैं। आगे पीछे गाड़ियां लगी चली जा रही हैं, नहीं रोकूँगा। कन्डक्टर ने अपने अन्दाज में जोर से चिल्लाकर कहा-गाड़ी रोक .............मेरी सीटी पर गाड़ी रोकना और मेरी सीटी पर गाड़ी बढ़ाना समझा साले! कंडक्टर ने एक भद्दी सी गाली देकर ड्रायवर से कहा। ड्रायवर ने गुस्से और अपमान से जोर का ब्रेक लगाया। मोटर थोड़ा साइड से लेकर खड़ी कर दी।
कन्डक्टर ने उस बच्चे वाली औरत की ओर देखा, बच्चा रो रो कर निढ़ाल सा हो रहा था बोला ए बाई वो सामने ढ़ाबे पर जाकर बच्चे को पानी पिला ला, घबरा मत मोटर नहीं जायेगी।

रात का अन्धेरा घिर आया था, दोनों औरतें डरती हुई बस से नीचे उतरी, ढाबे पर जाकर बच्चे को पानी पिलाया और भागकर वापस बस में आकर बैठ गई। तब तक बस स्टार्ट भर्र-भर्र करती रही।


कन्डक्टर ने सीटी बजाई। ड्रायवर ने गुस्से से धड़ाक की आवाज के साथ बस का गियर डाला और बस आगे चल दी। बच्चे का रोना बन्द हो चुका था और वो सो गया था।
बस में पेसेन्जर भी खामोश हो गये थे। ड्रायवर ने बस के अन्दर की सारी बत्तीयाँ बुझा दी थी गाड़ियों की भीड़ भी सड़क पर कुछ कम हो गई थी और बारिश भी फुहार में बदल गई थी। रात करीब दस बजे काफी देर चलने के बाद बस नर्मदा किनारे पुल के करीब एक ढ़ाबे पर रूकी। कन्डक्टर ने कहा-पन्द्रह मिनिट रूकेगी, चाय नाश्ता वगैरह किसी को करना हो तो कर लो। और वह उतर कर ढाबे पर चला गया। उसने बाहर टेबल पर रखे पानी एक मैले गिलास को उठाकर पानी पिया इतने में ढाबे से एक लड़का उसके लिये एक कागज में पोहे जलेबी ला कर उसे थमा गया था। ये उसे ढ़ाबे पर गाड़ी रोकने के बदले में था जो पहले से निर्धारित था उसने पेन अपने कान पर रखी। कागज की शीट और टिकिट बुक मोड़ कर बगल में दबाई, और जल्दी-जल्दी पोहे जलेबी खाने लगा।
वह खाते-खाते इधर-उधर देखता जाता और अपने बगल में दबी टिकिट बुक और शीट को सम्भालता जाता। मैंने देखा कि वह एक सम्पूर्ण बस कन्डक्टर जो सारे लोगों से अलग नजर आ रहा था, बात करने पर पता चला कि सचमुच वह बाकी सारे लोगो से अलग ही था।

मैं उसके पास खड़ा चाय पी रहा था और उसे ही देख रहा था। मैंने उससे कहा-कन्डक्टर साहब आज आपने उस बच्चे के पानी के लिये काफी मेहनत की और फिकर ली।
उसने मेरी और देखा और बोला-बाबू जी अपन छोटे आदमी क्या कर सकते हैं, अपन किसी को पानी थोड़े ही पिला सकते हैं। पानी तो वो ऊपर वाला पिलाता है। उसी ने पिलाया। अपन ने तो बस थोड़ी सी फिकर .............फिर उसने ऊपर उगँली उठाकर कहा - बच्चे ने अपनी तकदीर से पानी पिया, पर अपना नाम तो वहाँ लिखा गया न। बाबू जी मेरी एक बात याद रखना। इस आपाधापी के जमाने में नेक काम करने का मौका मिलता कहाँ हैं। मिले तो छोड़ना नहीं।

मैं इस ठेठ कन्डक्टर से यह उपदेश लेकर आश्चर्य से उसे निहारता रह गया। उसने सीटी बजाई, चलो बैठो गाड़ी जाने का टाईम हो गया।
और वह मेरी तरफ से बेपरवाह होकर गाड़ी की ओर बढ़ गया।

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Story writing by- Mohammad ismile khan 

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