Sunday, December 13, 2015

सुब्रमण्यम स्वामी के बारे में 21 बाते जिनसे ज़्यादातर लोग अंजान है।


आज Ignoredpost.com पर subramaniam swami के बारे में पोस्ट कर रहा हूँ उम्मीद है इससे आप स्वामी जी के जीवन को अच्छी तरह से जान पाएंगे ।
सुब्रमण्यम स्वामी एक ऐसी शख्सियत हैं, जो हर बार अपने विरोधियों को गलत साबित करते हुए, मिथकीय पक्षी फीनिक्स की तरह राख से उठ खड़े होते हैं। उनके विरोधियों को लगता है कि वह खत्म हो चुके हैं, लेकिन तब तक वह एक बार फिर आकार ले चुके होते हैं।
सुब्रमण्यम स्वामी : स्वतंत्र व्यक्तित्व

शिक्षक, अर्थशास्त्री, गणितज्ञ, राजनीतिज्ञ, प्राणी-मात्र के प्रति प्रेम-भाव रखने वाले तमिल ब्राह्मण स्वामी का जन्म बुद्धिजीवियों के एक परिवार में हुआ।
सुब्रमण्यम स्वामी उन लोगों में से हैं, जो आसानी से हार नहीं मानते या आसानी से कुछ नहीं भूलते। वह उन चंद लोगों में से हैं, जो दावा कर सकते हैं कि उन्होंने समकालीन भारतीय इतिहास पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है।
यहां हम आपको स्वामी के जीवन के उन पहलुओं से परिचय कराएंगे, जिनके बारे में अधिकतर भारतीय शायद ही जानते हों।
 1. उनके पिता एक प्रसिद्ध गणितज्ञ थे।
सुब्रमण्यम स्वामी का जन्म  15 सितंबर, 1939 को म्य्लापोरे, चेन्नई, भारत में हुआ।
उनके पिता सीताराम सुब्रमण्यम भारतीय सांख्यिकी सेवा में अधिकारी पद पर थे और इसके उपरांत उन्होंने केंद्रीय सांख्यिकी संस्थान के निर्देशक के रूप में कार्यभार संभाला।
2. उन्होंने हिन्दू कॉलेज से गणित में स्नातक डिग्री प्राप्त की और दिल्ली विश्वविद्यालय में तीसरे स्थान पर रहे थे।
यह कहना गलत नहीं होगा कि स्वामी के सितारे शुरू से ही बुलन्द थे। वह सिर्फ 6 महीने के थे जब उनके पिता ने अपनी नौकरी बदली और चेन्नई (तब मद्रास) से दिल्ली आ गए। दिल्ली, जिसे सत्ता का गढ़ माना जाता है।


सुब्रमण्यम स्वामी ने बीए में प्रतिष्ठित हिंदू कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की, और दिल्ली विश्वविद्यालय में तीसरा स्थान अर्जित किया।
3. पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए भारतीय सांख्यिकी संस्थान (आई. एस. आई), कोलकाता में दाखिला लिया।
स्वामी आगे की पढ़ाई पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए दिल्ली से कोलकाता (तब कलकत्ता) चले आए। और यहाँ से उनकी पहली ज़मीनी लड़ाई की शुरुआत हुई।



4 संस्थान के निदेशक स्वामी के पिता के व्यावसायिक प्रतिद्वंद्वी हुआ करते थे।
उस समय संस्थान के प्रमुख पीसी महालनोबिस थे जो कि स्वामी के पिता सीताराम सुब्रमण्यम के पेशेवर प्रतिद्वंद्वी थे। और जब महालनोबिस को स्वामी के पृष्ठाधार के बारे में ज्ञात हुआ, स्वामी को परीक्षाओं में कम ग्रेड मिलने शुरू हो गए।

पीसी महालनोबिस नेहरू के साथ


यह महालनोबिस ही थे, जिन्होंने योजना आयोग की परिकल्पना की थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दशकों बाद योजना आयोग को विघटित कर दिया है।
स्वामी ऐसे छात्र थे कि कोई भी ( कम से कम उनके संस्थान में पढ़ने वाले) उनसे द्वेष या किसी भी तरह का बैर नहीं रखना चाहते थे।

5. स्वामी ने पेशे से एक बड़े व्यक्ति को सबक सिखाया।
स्वामी के सांख्यिकीय जाल और मनगढ़त बातों को भेदने की अविश्वसनीय क्षमता ने उन्हें पीसी महालनोबिस के खिलाफ खड़ा कर दिया।


पीसी महालनोबिस 1963 में सांख्यिकी में अनुकरणीय कार्य के लिए मेयर-ऑफ़-पेरिस पुरस्कार प्राप्त करते हुए
एकोनोमेट्रिका में प्रकाशित अपने पत्र ‘नोट्स ऑन फ्रैकटाइल ग्राफिकल एनालिसिस’ में स्वामी ने महालनोबिस की एक सांख्यिकीय विश्लेषण पद्धति पर सवाल उठाते हुए लिखा था कि ये पद्धति वास्तविक नहीं हैं, बल्कि ये केवल पुराने समीकरण के ही एक विभेदित प्रपत्र है। यह स्वामी के विप्लव की प्रारंभिक अभिव्यक्ति थी। यह स्वामी की एक विशेषता थी, जिसे बौद्धिक रूप में और एक राजनेता के रूप में अभिव्यक्ति मिली।

6. हार्वर्ड के लिए अनुशंसा मिली।
अमेरिकी अर्थशास्त्री हेंड्रिक स्वामी की विद्वता के कायल थे। वह एकोनोमेट्रिका में प्रकाशित समाचार पत्र से भी जुड़े हुए थे। उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में स्वामी के प्रवेश की सिफारिश की। और इस तरह स्वामी को हार्वड में शिक्षित होने का मौका मिल गया।
1906 में रिचर्ड रुमल्ल द्वारा निर्मित आबरंग परिदृश्य

7. 24 साल की उम्र में हार्वर्ड से पीएचडी पूरी।
सिर्फ ढ़ाई साल में स्वामी ने अपनी पीएचडी पूरी कर ली थी। तब उनकी उम्र महज 24 वर्ष थी। उन्हें पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति मिली थी।
हार्वर्ड विश्वविद्यालय का दीक्षांत समारोह

1960 में गणित विषय में  दक्षता अर्जित करने और महज़ 24 साल की आयु में डॉक्टर की उपाधि से विभूषित होने के बाद स्वामी 1964 में स्वामी हार्वर्ड विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के संकाय में शामिल हो गए। बाद में वह वहां के अर्थशास्त्र विभाग में छात्रों को पढ़ाने लगे।
8. स्वामी ने पहले अमेरिकन नोबेल मेमोरियल पुरस्कार विजेता के साथ संयुक्त लेखक के रूप में एक थ्योरी प्रस्तुत की।
उन्होंने पॉल सैमुअल्सन के साथ संयुक्त लेखक के रूप में इण्डैक्स नम्बर थ्योरी का अनुपूरक अध्ययन प्रस्तुत किया। यह अध्ययन 1974 में प्रकाशित हुआ।
पॉल सैमुअल्सन
9. चीन की अर्थव्यवस्था के एक विशेषज्ञ के रूप में उभरे।
1975 में स्वामी ने एक किताब लिखी जिसका शीर्षक था “इकनोमिक ग्रोथ इन चाइना एंड इंडिया,1952-1970: ए कम्पेरेटिव अप्रैज़ल
स्वामी ने सिर्फ 3 महीने में चीनी भाषा सीखी (किसी ने उन्हें एक साल में चीनी भाषा को सीखने की चुनौती दी थी )।
स्वामी को आज भी चीनी अर्थव्यवस्था और भारत और चीन के तुलनात्मक विश्लेषण के प्राधिकारी का दर्जा प्राप्त है।

10. स्वामी को दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में शामिल होने के लिए अमर्त्य सेन ने आमंत्रित किया।
जब स्वामी एसोसिएट प्रोफेसर थे तो उन्हें अमर्त्य सेन ने दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में चीनी अध्ययन प्राध्यापक पद का न्योता दिया।स्वामी ने अमर्त्य सेन के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
विमुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के एक समर्थक के रूप में, 1968 में हार्वर्ड से दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में आने के उपरांत, स्वामी के बाजार से सम्बंधित अनुकूल विचार बेहद कट्टरपंथी थे और इंदिरा गांधी के समाजवादी ‘गरीबी हटाओ’ जैसे भारतीय नारों के समक्ष सशक्त नहीं थे।

लेकिन जव स्वामी हार्वर्ड से दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स आए तो दूसरे शिक्षाविदों के विचारों में परिवर्तन देखने को मिला।
दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में स्वामी को केवल रीडर के पद की पेशकश की गई। एक तेजी से लिया गया फैसला। या कहिए यू-टर्न।
छात्रों ने स्वामी का समर्थन किया।
11. 1969 में स्वामी आईआईटी चले आए।
स्वामी ने आईआईटी के छात्रों को अर्थशास्त्र पढ़ाया। वह अक्सर हॉस्टल में छात्रों से मिलने और राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय विचारों पर उनसे चर्चा करने के लिए जाते थे। अब तक स्वामी ने अपने नाम को अंपने दम पर बनाए रखा है।

उन्होंने सुझाव दिया कि भारत को पंचवर्षीय योजनाओं से दूर रहना चाहिए और बाह्य सहायता पर निर्भर नहीं रहना चाहिए।
उनके अनुसार 10% विकास दर हासिल करना संभव था।
12.  1970 में इंदिरा ने स्वामी पर निशाना साधा।
भारत के सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्रियों में से एक, इंदिरा गांधी ने 1970 बजट के बहस के दौरान स्वामी को अवास्तविक विचारों वाला सांता क्लॉस करार दिया।

शायद यह पहली बार था कि इंदिरा जैसे व्यक्तित्व के राजनीतिज्ञ ने स्वामी का मजाक उड़ाया हो।
स्वामी ने इन टिप्पणीयों पर ध्यान न देते हुए अपने कार्य को जारी रखा।
13. स्वामी और विवाद एक दूसरे के पूरक हैं।
यह स्वामी की बेबाकी थी कि उन्हें आईआईटी की नौकरी से हाथ धोना पड़ा। उन्हें दिसंबर 1972 में अनौपचारिक रूप  से बर्खास्त कर दिया गया।

1973 में स्वामी ने गलत तरीके से बर्खास्तगी के लिए प्रतिष्ठित संस्थान पर मुकदमा ठोक दिया। उन्होंने 1991 में यह मुकदमा जीता और अपनी बात को साबित करने के लिए वह इस्तीफा देने से पहले संस्थान में केवल एक दिन के लिए ही शामिल हुए।
14. 1974 में राजनीतिक पारी की शुरुआत हुई।
अपनी पत्नी, छोटी बेटी और कोई नौकरी न होने की वजह से स्वामी ने अमेरिका वापस जाने का विचार कर लिया था। यह कहना गलत नहीं होगा कि  तभी भाग्य ने हस्तक्षेप कर  राजनीति में उनका आगमन कराया।
नानाजी देशमुख

जनसंघ के वरिष्ठ नेता नानाजी देशमुख के एक फोन कॉल से स्वामी का जीवन बदल गया। उन्हें राज्यसभा में पार्टी का नेतृत्व करने के लिए चुना गया था। 1974 में वह संसद के लिए निर्वाचित हुए।
15. आपातकाल के दिनों में साहस दिखाई।
विभाजन के बाद जो आजादी और सकल मानव त्रासदी सामने आई उसे स्वामी ने करीब से देखा था। वह उन कर्कश दिनों के गवाह थे जब विभाजन के बाद लोग दैनिक संघर्षों से जूझते दिखे।
आपातकाल की स्थिति (1975-77) ने उन्हें एक राजनीतिक हीरो के रूप में खड़ा किया । स्वामी गिरफ्तारी वारंट को नकारते हुए पूरे 19 महीने की अवधि के लिए टालते रहे।
आपातकाल के दौरान अमेरिका से भारत वापस आना, संसद के सुरक्षा घेरे को तोड़ना, 10 अगस्त 1976 में लोकसभा सत्र में भाग लेना और देश से पलायन कर अमेरिका वापस लौटना उनके सबसे साहसी कृत्यों में गिने जाते हैं।
16. पार्टी के संस्थापक सदस्य, जिसने आपातकाल के बाद चुनाव में विजय हासिल की।
स्वामी जनता पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे, जिसने 1977 में इंदिरा गांधी के आपातकाल शासन को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया।
1970 के दशक में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के साथ सुब्रमण्यम स्वामी

बाद के दिनों में जनता पार्टी सामर्थ्यहीन हो गई, लेकिन स्वामी का दबदबा कायम था। वह 1990 से लेकर जनता पार्टी के भाजपा में विलय होने तक पार्टी के अध्यक्ष बने रहे। विपक्ष अक्सर खिल्ली उड़ाता था कि स्वामी जनता पार्टी को आगे बढ़ा रहे हैं, एक ऐसे सेनापति के रूप में जिसकी सेना है ही नहीं। लेकिन सच तो यह है कि वह लंबे समय से ऐसा करते आए हैं।
17. स्वामी का ब्लूप्रिंट -1990 के दशक में मनमोहन सिंह के लिए बना मार्गदर्शक।
1990-91 में प्रधानमंत्री के रूप में चंद्रशेखर के संक्षिप्त कार्यकाल के दौरान देश के वाणिज्य और कानून मंत्री के रूप में स्वामी ने एक ब्लू प्रिंट तैयार कर  भारत में आर्थिक सुधार की नींव रखी।

डॉ मनमोहन सिंह, तत्कालीन वित्त मंत्री ने कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के तहत 1991-92 के लिए अंतरिम बजट पेश किया
यह स्वामी का ही ब्लू प्रिंट था, जिसे प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव के तहत वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने लागू किया था, ताकि देश में नेहरूवादी समाजवाद कायम किया जा सके।
18. विपक्ष में स्वामी को  कैबिनेट पद दिया गया।
जनता पार्टी के अध्यक्ष और एक विपक्षी नेता होने के नाते, स्वामी को  शासित पार्टी द्वारा कैबिनेट पद सौपा गया।

ऐसा कहा जाता है कि स्वामी, नरसिम्हा राव के साथ उनकी परेशानी के दिनों में भी उनके साथ एकाएक खड़े थे।
1994 में वह प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव सरकार के कार्यकाल के दौरान “श्रम मानकों और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर आयोग के अध्यक्ष”, एक कैबिनेट मंत्री के पद पर रहे।
19. एक शिक्षाविद् से लेकर एक वकील तक।
ज़्यादातर भारतीयों की सोच से एक दम विपरीत, जैसा की ऊपर बताया गया है कि वह शिक्षा से एक गणितज्ञ है।

ये उनकी ज़िन्दगी के उतार चढ़ाव ही थे जिसने उन्हें राजनीति और कानून की  तरफ मोड दिया।
20. 2 जी घोटाले को उजागर करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
राजनीति के मैदान से लंबे समय तक गायब रहने के बाद, स्वामी ने 2008 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मोबाइल स्पेक्ट्रम बैंड के अवैध आवंटन पर ए. राजा पर मुकदमा चलाने की अनुमति मांग कर 2 जी घोटाले का पर्दाफाश किया था।

21. भारतीयों के लिए कैलाश मानसरोवर की यात्रा को  संभव बनाया।
सुब्रमण्यम स्वामी के अथक प्रयास का ही परिणाम है कि कैलाश मानसरोवर की यात्रा के लिए भारत और चीन की सरकारों के बीच एक समझौता हो सका है। हिन्दू तीर्थयात्रियों के लिए स्वामी ने गंभीर प्रयास किए हैं।
पर्वतीय कैलाश मानसरोवर
इसके लिए स्वामी ने 1981 में ही अभियान छेड़ा था। उन्होंने उस साल अप्रैल महीने में चीन के शीर्ष नेता देंग जियाओपिंग से मुलाकात की थी।

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