Thursday, December 17, 2015

एक गुजराती महिला का भाषा प्रेम

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एक बार ट्रेन से दिल्ली जाना हुआ था, रूड़की से शुरू हुई इस छोटी सी यात्रा में इतनी बड़ी सीख मिली कि कोई भी भूल न पाएगा.

रिजर्व डिब्बा था और ट्रेन हरिद्वार से चली थी, अहमदाबाद जानी थी . मेरी सीट के सामने वाली सीट पर ही एक गुजराती महिला बैठी थी और बगल वाली सीट्स पर थे पूरे समय जोर-जोर से गाना गाते, चिल्लाते और अंग्रेजी में गिटपिट करते कुछ नौजवान लड़के लड़कियां आने-जाने वालों पर तरह-तरह के कमेन्टस करते हुए .

चुपचाप थी गुजराती महिला, कुछ खाना निकाला और उनसे खाने का आग्रह किया मैंने, लेकिन उपवास था उनका, पैन्ट्रीकार वाले से उनका विनम्र अनुरोध "भैया, एक कप चाय सफाई से बनाकर मुझे ला सकते हैं, मेरा उपवास है" बहुत शालीन था .

'ट्रेन में भी एक अलग पवित्र पैन्ट्रीकार होनी चाहिए ' जी हां, आज तक याद है उन नौजवानों का उस समय का यह भद्दा कमेन्ट मुझे, जो अंग्रेजी में किया था उन्होंने . गुजराती महिला शायद अंग्रेजी समझ नही रही थी, उनके सादगी भरे पहनावे से तो ऐसा ही लगा था. तभी दूसरे डिब्बे से शायद, तीन लोग हमारे डिब्बे में पंहुचे और गुजराती महिला को झुककर इज्ज़त से अभिवादन करते हुए कुछ जरूरी पेपर्स साइन कराए .

आश्चर्य! तीनों, गुजराती महिला के साथ शुद्ध अंग्रेजी में बात कर रहे थे, मैं मंद-मंद मुस्कुरा रही थी और नौजवान लड़के-लड़कियां अवाक्, मुंह फाड़े, शरमिंदा से कभी मेरी, तो कभी गुजराती महिला की तरफ चोर नज़र से देख रहे थे. गुजराती महिला मिसेज दवे थी और गुजरात यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी की हैड ऑफ द डिपार्टमैंट थी .

एक बार भी महसूस नही हुआ आपसे मिलकर, बातचीत कर कि आप विदुषी हैं ? मेरे इस सवाल पर उनका कहना था :

"विदेशी भाषा हम अपनी जरूरत और ज्ञान बढ़ाने के लिए सीखते हैं, बातचीत करने को हमारे पास अपनी सुदंर और संपूर्ण भाषा है . हमारी भाषा हमें अपनी जमीन से जुड़ा रखती है. . .

लेखिका: राधा देव शर्मा .

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