Tuesday, December 15, 2015

एक पिता का ख़त उस बेटे के लिए जो इस दुनिया में आ न सका

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एक पिता का ख़त उस बेटे के लिए जो इस दुनिया में आ न सका...
डियर प्लेसेंटा,

तुम सोच रहे होगे कि पापा ने ये कैसा नाम रखा मेरा। पर क्या करूं, जब से तुमने मम्मी के पेट में उलछ कूद शुरू की, तब से एक ही तो शब्द सुना मैंने- प्लेसेंटा। डॉक्टर आंटी बोली कि प्लेसंेटा खिसक गया है, नर्स बोली प्लेसेंटा नीचे आ गया। प्लेसेंटा को ये हो गया, प्लेसेंटा को वो हो गया। तब ही सोच लिया था कि जब तुम आओगे तुम्हें प्लेसेंटा कहकर ही पुकारूंगा।
सोचा यह भी था कि तुम्हारी आमद पर सिर्फ तुम ऊआं... ऊआं... करके रो रहे होगे और हम खुशी से फूले नहीं समाएंगे। लेकिन तुमने तो उलटी कहानी रच दी। तुम आने के बाद चुप रहे और हमारी अांखों में आंसू थे।
मेरी आधी हथेली के बराबर भी नहीं थे तुम, लेकिन पूरे जिस्म को हिला गए।
तुमने जमीन नहीं छुई। मां के पेट से सीधे ओटी की ट्रे में और फिर मेरे हाथों में थे। कुदरत का निजाम देखो तीन महीने में तुम पूरे हो चुके थे। भले ही बाकी लोगों ने तुम्हें सिर्फ देखा, लेकिन मैंने तुम्हें पढ़ा था। लग रहा था जैसे कहोगे लो पापा मैं आ गया। तुम्हारी बड़ी सी पेशानी, पतली अंगुलियां, लंबे पैर। कहीं-कहीं तुम्हारी स्कीन भी बन रही थी। वो छुटुक सा चेहरा भी देखा मैंने। मेरे जैसे ही दिखे।
तुम वक्त से काफी पहले आ गए, फिर भी ओटी के बाहर भीड़ लगी थी। सोचो अगर वक्त पर आते तो क्या आलम होता।
मालूम है तुम्हारी इस जल्दबाजी में मम्मी ने तो सुधबुध खो दी। दादी, नानी, फुप्पो, खाला पूरे वक्त रोती रहीं। दादा जैसे स्ट्रांग मैन को भी गुमसुम देखा मैंने। अपने जिन दोस्तों को बताया वह भी उदास थे। आधा बालिस जान दो परिवारों को रुला गई।
कुछ वक्त पहले तुम्हारी हार्ट बीट भी सुनी थी मैंने। एक नहीं तीन बार। जब डॉक्टर बोलता था कि बच्चे की सांसें नॉर्मल हैं तो एक्साइटमेंट में मेरी सांसें तेज चलने लगती थीं। कभी-कभी रात में भी तुम्हारी उथल पुथल का अहसास होता था।
तुम्हारी सलामती के लिए दवा और दुआ करने में कोई कसर नहीं रखी। न एक वक्त की टेबलेट, इंजेक्शन मिस किया और न दुआ। तुम्हें हाथ लगा-लगाकर तुम्हारी मां तजवियां पढ़ती थी। दादा-दादी दम करते, मोबाइल पर नूरनामा सुनाया जाता। फिर भी...तुम चले गए।
तुम्हारे नाज नखरे भी कुछ कम नहीं उठाए। जब से तुम्हारी आमद हुई तुम्हारी मां ने जो बोला वह किया। उसका बोला हर लफ्ज उसका नहीं तुम्हारा होता था। तुम उसे इशारा करते थे कि पापा से आज रसमलाई मंगवाओ। आज मुझे पिज्जा खाना है, आज मुझे पनीर-नूडल्स चाहिए। जब मैंने तुम्हारा हरेक कहना माना तो तुम क्यों रूठ गए जल्दी।
जिन मौलाना साहब को तुम्हारे आने की खुशी में फातेहा पढ़ना थी, कल उनसे ही पूछना पड़ा कि अब तुम्हें कैसे विदा करूं। एक सफेद कपड़े में लपेटकर नर्स ने तुम्हें मेरे हाथों में दे दिया और मैं तुम्हें सुपुर्दे खाक कर आया।
खैर, अल्लाह की मर्जी। मेरा-तुम्हारा साथ इतना ही था। तुम मुझसे पहले ऊपर चले गए। अब वहां दुआ करना कि तुम्हारी ही तरह एक और बेबी जल्द आए। मेरे चेहरे पर असली रौनक तो तभी आएगी।
- तुम्हारा पापा...

लेखक:-Shami Qureshi

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