बचपन की सुनहरी यादें : वो दिन जो बीत गये
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अभी ज्यादा उम्रदराज नहीं हूं लेकिन उस समय का पक्षधर रहा हूँ, यही कोई 15 साल पहले जब शाम चरम पर होती थी तब हमारे गांव में लगभग सभी बुजुर्ग घर के बाहर कच्चे चबूतरे अपनी अपनी खाट निकालकर बैठ जाते थे ।अगल बगल गोबर भी पड़ा होता था।
हम शाम को दोस्तों संग खेलते कुदते अधिकांश दिन धूल से सने घर को लौटते थे आंखो को सुकुन देने वाला रमणीय नजारा होता था अभी भी खेतों में चरती कुछ भैंस और बकरिया और घंटे दो घंटे में साईकिलों के बीच से कभी पड़पड़ाती स्कूटर भी निकल जाती थी, आखिरकार हम रास्ते में बंधी भैंसो की पुंछ को बचाते हुए हम गांव में प्रवेश कर ही जाते थे ।
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उन बुजुर्गों की खाट पर बड़े सादर भाव से हम भी बैठ जाते थे । बुजुर्ग द्वारा अपने मितान से बात करते वक्त हम उन लोगों की बातें बड़े ध्यान से सुनते थे फिर शुरू होता था हिदायतों का वक्त, यही की संभाल के खेला करो , मन से पढ़ो लिखो । हां मुझे पता उन बुजुर्गों के मन थोड़ी भी ईर्ष्या की भावना न थी ।
उनके द्वारा बच्चों को प्यार से पुचकारना । उनका तो बच्चों को पुकारने का अंदाज भी अलग था, हम लोगों को पापा के नाम से पुकारा जाता था जैसे "हे कैलास वाला "।अब हम मदमस्त अंदाज में घर को चल दिया करते थे अब नंबर होता था अपने दादा के पास जाने का । थोड़ा भी अंधेरा हो गया हो तो हल्की फुल्की डांट भी सुननी पढ़ती थी ।
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समय बदल गया है --
चबूतरे पक्के हो गये हैं, आसपास ना भैंस हैं ना गोबर, साफ सफाई भी खुब रहती है लेकिन अब शाम को उन सभी घरों के दरवाजे बंद रहते हैं जहां कभी महफिल जमा हुआ करती थी, जहां कभी बुजुर्गों में तर्क वितर्क चला करता था और बच्चे भी जैसे कोचिंग क्लास में बैठे उनकी बाते सुना करते थे ।
आज वही चबूतरे पर कुछेक बुढ़े या नई युवा पीढ़ी बैठी मिल जाती है लेकिन फर्क इतना होता है कि ये ईर्ष्या से परिपूर्ण और किसी से कोई मतलब नहीं ।पहले चबूतरे गंदे थे लेकिन दिल साफ था आज चबूतरे साफ हैं पर दिल गन्दा ।
आज हम रात 8 बजे तक घर पहुंचते हैं लेकिन " अब तक कहा थे ? कोई पूछने वाला नहीं है -----।।
हां __ कुछ तो छीना इस नारंगी ज़माने ने ।
Story Writing and post editing by- पंकज विश्वजीत And Ignored Post Team..
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